उपदेश काल
सम्वत् 1540 के चैत्र सुदी नवमी को माता-पिता की स्वर्गवास के बाद जाम्भोजी ने अपना घर त्याग कर पवित्र समराथल धोरा आये और यहाँ जाम्भोजी ने 34 वर्ष की आयु में कार्तिक वादी आठामं (जन्मस्थ्मीं ) सन् 1485 (विक्रम सवंत 1542) के दिन समराथल धोरे पर पवित्र पाहल बनाकर बिश्नोई पंथ की स्थापना की तथा 51 वर्ष तक वहीं पर विष्णु नाम व लोगों को सन्देश देते रहे । इस दौरान अनेक प्रसिद्ध राजा,नाथ योगी,शास्त्रज्ञ पंडित, काजी, सामान्य गृहस्थ लोग संभराथल पर आकर गुरु जांभोजी से उपदेशित हुए थे।
उन्होंने २९ नियमो में पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। दान की अपेक्षा उन्होंने ‘शील स्नान‘ को उत्तम बताया। उन्होंने पाखण्ड को अधर्म बताया ।
ईश्वर के बारे में उन्होंने कहा - ”तिल मां तेल पोह मां वास,पांच पंत मां लियो परकाश ।”
जाम्भोजी ने गुरु के बारे में कहा था -”पाहण प्रीती फिटा करि प्राणी, गुरु विणि मुकति न आई।”
जाम्भोजी ने जाति भेद का विरोध करते हुए कहा था कि – “उत्तम कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति उत्तम नहीं बन सकता, इसके लिए तो उत्तम करनी होनी चाहिए।
श्री गुरु जम्भेश्वर (जाम्भोजी) १५२६ ई० में तालवा नामक ग्राम में परलोक सिधार गए। ओर उनको वहां समाधी दी गयी उस दिन से उस जगह का नाम मुक्तिधाम मुकाम पड़ गया। उनकी स्मृति में विश्नोई भक्त फान्गुन मास की त्रियोदशी को वहाँ श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ओर हर वर्ष आसोज व फाल्गुन महीने की अमावस्या को मेला भरता है जहाँ देश के हर कोने से विश्नोई शर्धालू आते है।