जाम्भा सरोवर तीर्थ का महात्मय :
वील्हो उवाच :- हे गुरुदेव! आपने पीछे बतलाया था कि जाम्भोजी ने गंगा को सम्भराथल के नीचे एक धारा के रूप में बहते हुए देखा था, उसी समय साथरियों ने पूछा कि- अब वह धारा कहां गयी? तब श्रीदेवजी ने बतलाया था कि वह धारा तो जाम्बा तालाब पर पंहुच जायेगी। वही गंगा समान तीर्थ होगा। उसमें स्नान करने का फल गंगा सदृश ही होगा। इस समय में आपसे जाम्बेलाव का महात्म्य एवं तीर्थों की महिमा सुनना चाहता हूं।
नाथोजी उवाच :- हे शिष्य! जहां पर भी पवित्र जल में स्नान किया जाता है वह तीर्थ कहलाता है। जल तो सभी जगह विद्यमान है किन्तु तीर्थ की महिमा को तो वही जल प्राप्त होता है जहां पर कभी किसी महापुरूष संत ऋषि ने तपस्या यज्ञादिक शुभ कार्य किये हो। वैसे तो जाम्बेजी ने 'अड़सठ तीर्थ हिरदा भीतर कह करके हृदय के भीतर ही बतलाया है किन्तु बाह्य तीर्थ भी लोकाचार के लिये है।, ताज्य नहीं है, सेवनीय ही है। जिन साधारण लोगों को भीतर के तीर्थों का कुछ पता नहीं है उनके लिए बाह्य तीर्थ भी बतलायाउ गया है आवश्यक भी है। हृदय भीतर के तीर्थों में स्नान तो कोई बिरला ही कर पाता है। तीर्थो में शिरोमणि गंगा स्ना है श्रीदेवजी ने गंगा का महत्व बतलाया है। पाहल गति गंगा तणी जेकर जाणे कोय। गंगा दूर देश में स्थित है, यहां के लोगों को गंगा का स्नान मिल सके, इसके लिए जाम्भोजी महाराज ने जाम्बोलाव तीर्थ बतलाया था।
एक समय सम्भराथल पर विराजमान श्रीदेवजी के सन्मुख बैठे हुए रणधीर आदि भक्तों ने श्रीजी से पूछा था तब जाम्बोजी ने जाम्बोलाव का महात्म्य बतलाया था। हे वील्हा! वही मैनें श्रीमुख से सुना था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूं। ध्यानपूर्वक श्रवण करों- पवित्र जाम्बोलाव ज्ञान गंगा में भी स्नान करेंगे तो पवित्र ज्ञानी हो जाओगे। नाथोजी उवाच- सेवकों ने सतगुरु से पूछा- हे देव! तीर्थ कितने हैं? उनमें कौनसे तीर्थ में जाकर स्नान करके जिससे पापों से मुक्त हो सकें। यहां पर तो गंगा,यमुना, सरस्वती, प्रयाग, काशी, अयोध्या,मथुरा,रामेश्वरम,द्वारावती, जगन्नाथ,केदार,बद्री,पुष्कर आदि अनेकों तीर्थ है। इनमें से जो श्रेष्ठ है उसी में ही हम स्नान करें, जिसेस मुक्ति को प्राप्त हो जावें। जाम्बेश्वरजी ने तीर्थों का बखान करते हुए इस प्रकार से कहा-
वैसे तो अड़सठ तीर्थ हृदय भीतर ही है। उनकी खोज करो, अन्यत्र कहां कहां भटकोगे, पैर घिसाओगे। शरीर,धन,बल की ही हानि होगी। आप लोग हृदय तीर्थ में ही स्नान करो और यदि इस उच्च स्नान करने में समर्थ नहीं है तो मैं तुम्हें यही उदेश फलोदी में ही तीर्थ बतलाता हूं।
सेवकों ने पूछा- हे देव! यहां फलोदी देश की भूमि किस प्रकार से पत्रि होकर तीर्थ बन गयी, यह बतलाने की कृपा करें। इस भूमि पर किसने तपस्या की, किसने यज्ञ किये हैं और कौन पार पंहुच सका है। यदि ऐसी यह पवित्र भूमि है तो अब तक छुपी हुई कैसे रही, प्रगट क्यों नहीं हो सकी वेद पुराणों में इसकी चर्चा क्यों नहीं हुई?
चारों युगों में ऋषियों से छानी क्यों रह गयी तथा यह भूमि पवित्र किस प्रकार से हो गयी।
श्री जाम्बेश्वरजी ने बतलाया- सातवें कल्प में ब्रह्म सरोदक नाम से तीर्थ था, यहां पर ब्रह्माजी ने यज्ञ की रचना की थी, वहां पर अठियासी हजार ऋषि लोग आये थे, उनमें मार्कण्डेय, दत, लोमश आदि प्रधान थे। छ: महीने तक लगातार हवन हुआ, विशाल वेदी में परनाले से घृत की धारा द्वारा आहुति प्रदान की थी। ववहां पर सर्वदेव महेश,इन्द्र तथा विष्णु आये थे। उनके चरण कमलों की रज से यह भूमि पवित्र हुई थी और यज्ञ से यह स्थल तीर्थ बन गया था।
दूसरी बार में भगवान शिव ने यहां पर यज्ञ किया था दस महीने तक यज्ञ हुआ थ, इन्द्रादिक देवता स्वयं यज्ञ में सम्मिलित हुए थे। उसमें अपार घृत सामग्री की आहुति दी गयी थी। देव मुनियों ने जयजयकार किया था। यश्र पूर्ण हुआ। देवता ने तथा ऋषियों ने शंख बजाया, देवताओं ने फूलों की वर्षाा की गन्र्धवों ने मधुर ध्वनि में गायन किया था। स्वर्ण कलश जल से परिपूर्ण करके सुशोभित वेदी पर रखा था, इस प्रकार से यज्ञ सम्पन्न हुआ था।
तीसरा यज्ञ यहां पर पाण्डवों ने किया था। वनवास काली में पाण्डवों ने वेदव्यासजी से पूछा था कि ऐसा कोई स्थल बतलाओ जहां जाकर के हम यज्ञ करें, हमारी इच्छा पूर्ण होवे। वेदव्यासजी ने जांगल देश में काम्यक वन में यहीं जाम्भोलाव स्थल को ही बतलाया था। पाण्डवों ने यहां पर दिव्य वेदी-यज्ञकुण्ड बनाया था। यज्ञ में अन्य मुनियों के अतिरिक्त श्रीकृष्ण स्वयं भी पधारे थे। ब्रह्माजी ने स्वयं श्रीमुख से वेद मंत्रों का उच्चारण किया था। वेदव्यासजी ने भागवत कथा का गान किया था। लगातार अठारह महीने तक यज्ञ किया था। यज्ञ से तीनों लोक तृप्त हुए थे। श्रीकृष्ण ने पांचायण शंख बजाया था। ऐसी यह दिव्य भूमि यज्ञ से अति पवित्र है।
यह बात सत्य है कि वेद पुराणों में इस स्थल की चर्चा नहीं हुई है। यहां पर अन्य भी अनेकानेक पापियों का उद्धार हुआ है। श्रीदेवजी ने श्रीमुख से जाम्बा सरोवर का महात्मय बतलाया था। उसी समय ही साथरियों ने श्रीदेवजी से इच्छा प्रगट की कि यदि ऐसा पवित्र स्थल है तो आप हमें अवश्य ही उस स्थल का दर्शन करवाइये। हम भी वहां जाकर यज्ञ तपस्या तथा मिट्टी निकाल करके अपने को पवित्र करेंगे। आप भी वहां पर उपस्थित होंगे तो हमारा सौभाग्य अनन्त गुणा फलीभूत हो जायेगा।
साथरियों की प्रार्थना स्वीकार करते हुए श्रीदेवजी सम्भराथल से भक्तों सहित रवाना हुए। प्रथम दिन जांगलू के पास ही जंगल में आसन लगाया। रणधीरजी ने कहा- हे देवजी! हमारे बैल प्यासे हैं! जल कहां मिलेगा? श्रीदेवजी ने हरे भरे वृक्ष दिखाते हुए कहा कि- यहां से थोड़ी दूर पर ही ये वृक्ष दिखाई देते हैं वहां शुद्ध जल मिलेगा। रणधीरजी ने कहा- महाराज! वहां पर तो जल नहीं है, इस भूमि को मैं जानता हूं। जाम्भोजी ने कहा- हे भक्त! अवश्य ही जाओ, वहां जल मिलेगा। बैलो को लेकर जल हेतु पंहुचे तो वहां जल से तालाब भरा हुआ मिला। बैलों को जल पिलाया और शुद्ध जल लेकर वापिस आये, सतगुरुदेव की लीला को धन्यवाद दिया।
हे वील्हा! वह वही जगह है जहां देवजी ठहरे थे। वह जांगलू की साथरी एवं जल की प्राप्ति हुई है वह बरसीवाला तालाब। एक रात्रि विश्राम जांगलू की साथरी करके दूसरे शाम को खींदासर में निवास किया। जहां पर रूपे को भण्डारी बनाकर भेजा था वहां के लोगों ने आदर सत्कार किया, रूपे सिंवर ने अपने को धन्यवादी माना।
तीसरे दिन शाम को जाम्भोलाव पंहुचे उस पवित्र स्थल को तीर्थ बनाया। वहां पर खुदाई का कार्य विक्रम सम्वत् 1566 आसोज कृष्ण पृक्ष पुष्य नक्षत्र पंचमी बृहस्पतिवार को प्रारम्भ किया। जैसलमेर के राजा जैतसी को समाचार मिला कि हमारे ईष्टदेवता आजकल फलोदी के पास आये हैं। परोपकारार्थ तालाब खुदाई का कार्य करवा रहे हैं। जैतसी भी पुण्य कार्य में भाग लेने के लिए अपने सेवकों सहित जाम्भोलाव श्रीदेवजी के निकट पंहुचे। प्रणामादि मर्यादा का पालन करते हुए जाम्भोलाव तालाब खुदाई में अपनी भागीदारी सुस्थिर करने के लिए श्रीदेवजी से प्रार्थना की। जम्भेश्वरजी की आज्ञा अनरुसार तालाब खुदाई के कार्य में जैतसी संलग्न हुआ।
राजा स्वयं सेवा कार्य करता था। प्रजा तो उन से ही आगे बढ़़कर कार्य करने में उतावली हो रही थी। दिन भर मिट्टी निकालते, पाल बंधाई का कार्य करते, सांय को श्रीदेवजी कमलासन पर विराजमान होते, उनके पास जमात एकत्रित होती, उस पवित्र जाल वृक्ष के नीचे बैठकर जनता को सदुपदेश देते, सेवाकार्य एवं सत्संग श्रपवण करके उस पवित्र स्थल पर जनता अपने आप को कृतार्थ अनुभव कर रही थी।
श्रीदेवजी ने बतलाया कि यह पवित्र सरोवर है। इसको खुदाई करने में महान पुण्य है यहां पर सिद्धों में शिरोमणि कपिल मुनि ने तपस्या की थी। यहीं पर सांख्य शास्त्र की रचना की थी। आप लोग यह जाल वृक्ष देख रहे हैं इसी के नीचे कपिल मुनि का आसन था। इसी तालाब में ही स्नान करने एवं श्रद्धापूर्वक मिट्टी निकालने से ही फल मिलता है।
करोड़पति सेठ फलोदी का श्रीचंद एवं उनके तीन पुत्रों तथा एक कन्या की भाग्यवश दुर्गति हो गयी थी। स्वयं ब्रह्माजी के लिखा हुए लेख यहां स्नान करने से दुर्भाग्य से सौभाग्य में बदल गया था। विपति एवं दुर्भाग्य से सौभाग्य में बदलने वाला यह स्थल है।
कर्णमाल ऋषि का तपस्या क्षेत्र भी यही था। यहीं से उनको ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अपने किए हुए कुकर्मों के मेल को यहीं पर स्नान ध्यान करके धो डाला था।
एक जीव हिंसक सुखनियां भी भटक्ता हुआ यहां पर आ गया था। प्यासा था, जल पी लिया, मिट्टी निकाली एवं स्नान किया, उसकी बुद्धि शुद्ध हुई। सदा सदा के लिए इस तीर्थ के प्रभाव से जीव हत्या करनी छोड़ दी। पूर्व जन्म के कुछ अच्छे कर्म थे वे यहीं आने पर फल देने में समर्थ हो गये जिसके प्रभाव से वह दयालु मानव बन करके भगवान का प्रिय भगत हो गया था।
इस तीर्थ पर वस्त्र दान का फल उतम है। पूर्व जन्म में द्रोपदी अपनी सहेलियों के साथ इस तीर्थ में स्नान करने के लिए आयी थी। उसी समय ही एक ऋषि तालाब में स्नान कर रहे थे, उनके पास उस समय लंगोटी के लिए वस्त्र नहीं था, उन कन्याओं को देखकर संकोच के मारे जल से बाहर नहीं आ सके, द्रोपदी इस बात को समझ गयी। उसने अपने चीर में से एक टुकड़ा फाड़कर ऋषि की तरफ फेंक दिया। ऋषि लंगोटी पहनकरके वहां से प्रस्थान कर गये। उसी वस्त्रदान के प्रभाव से द्रोपदी का चीर बढ़ा था। दूसरे जन्म में वही वस्त्र का दान देने वाली कन्या द्रोपदी के रूप में जन्म लेकर आयी। कौरवों की सभा में दुशासन द्वारा चीर हरण हुआ था, उस वस्त्र दान के प्रभाव से द्रोपदी का चीर बढ़ा था। श्रीदेवजी जनसमूह को जाम्बोलाव का महात्मय बतला ही रहे थे कि उनके सामने अलूजी चारण हाथ जोड़ उपस्थित हुए और प्रार्थना करने लगे -
वेद जोग्य वैराग खोज, दीठा नर नंगम।
सन्यासी दरवेश सेष, सोफी अरू जंगम।
विथा वियापी मोही आजा, आसा कर आयो।
पाणी पियो एक बार, पेट सुख परचो पायो।
पांचवा वेद संभल्या शब्द, चार वेद होता चलूं।
केवली जम्भ सांभल कवल, आज साच पायो अलूं।
अलूजी जोधपुर राज्य के रहने वाले थे। चारण गोत्र के प्रसिद्ध कवि थे। उन्हें जलोदर रोग ो गया था। इलाज करवाने के लिए अनेकों जगहों पर भटका था। अलूजी ने सुना थ कि एक वैद्य मुल्तान में रहता है वहां पर भी गये। किन्तु कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ। एक वर्ष तक दवा का सेवन किया किन्तु व्यर्थ ही गया। वहां से चलकर लाहौर आये वहां पर एक सूफी से दवा ली किन्तु उदर रोग तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही गया। वहां से चलकर कांगड़े पंहुचा, वहंा पर एक सिद्ध नाथ रहता था। उनसे आशीर्वाद जंतर मंतर करवाया किन्तु जलोदर तो बढ़ता ही गया। वहां से चलकर इन्द्रप्रस्थ आये। वहां पर एक मुल्ला से इलाज करवाया किन्तु कुछ भी फल नहीं मिला। वहंा से चलकर मथुरा में आये वहां एक गोसाई मुनि का नाम सुना था उनके पास एक महीना तक रहे किन्तु रोग घटा नहीं बढ़ते ही चला जा रहेा था। वहां से चलकर जयपुर गये वहां एक सन्यासी के चरणों में श्रद्धा अर्पित की। वहां से अजमेर आया किन्तु कुछ भी लाभ नहीं मिला। वहां से चलकर मण्डोर आया। एक नाथ के चरणों में सिर झुकाया, रोग निवृति की प्रार्थना की उनकी सेवा की किन्तु रोग की निवृति नहीं हो सकी। वहां से चलकर पोकरण होते हुए फलोदी आया। दो तपस्वियों को अपनी कर्मों की रेखा दिखाई। उनके पूछा कि अमर रोग कटेगा या नहीं। उन्होनें 16 दिन अपने पास रखा, जब मरने की तैयारी हो गयी, कहीं कोई जीवन की आशा ही नहीं बची तब अलू को चारपाई पर डालकर जाम्बोलाव लाये, यहां एक बार सिद्ध तीर्थ में स्नान किया।
श्रीदेवजी जाल वृक्ष के विराजमान थे। उसी समय ही हे वील्हा! मैनें अलूजी को स्तुति करते हुए देखा था। अलूजी अपनी घोर निराशा प्रगट कर रहे थै। जीवनआशा छोड़ चुके थे। आंखों में अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। हाथ जोड़ते हुए श्रीदेवजी के सामने लम्बे गिर चुके थे।
श्री जम्भदेवजी ने अपने शिष्यों से कहा- जाओ सरोवर से जल ले आओ। जल द्वारा श्रीदेवजी ने स्वयं ही अलूजी को स्नान करवाया, दो घूंट जल पिलाया। अलू पूर्ण स्वस्थ हो गया। स्तुति करने लग। सदा सदा के लिए अलू रोगों से निवृत होकर अनेक छन्दों द्वारा श्रीदेवजी की स्तुति की थी। अलू की व्याधि मिट गयी, अन्न जल ग्रहण करके स्वस्थ हुआ। अब केवल व्याधि ही नहीं मिटी, जन्म मरण रूपी व्याधि भी मिट गयी। अलू जी चारण जाम्भोजी के शिष्य कवि हुए। अपनी वाणी को जाम्भोजी की स्तुति द्वारा सफल किया।
जैसलमेर की यात्रा में तेजोजी चारण जाम्भोजी के साथ गये थे। वहीं पर ग्वाल चारण ने बिश्नोईयों के बारे में कुछ प्र्रश्न पूछे थे उनका समुचित जवाब तेजोजी ने ही दिये थे। तेजोजी को कुष्ठ रोग हो गया था। जाम्भोजी तालाब खुदवा रहे थे। तेजोजी जाम्बोलाव पर जाम्भोजी के सन्मुख हुए थे। वहां जाम्बोलाव पर स्नान करने के लिए तेजो ने कोशिश की थी किन्तु कुष्ठ रोग होने से वहां के लोगों ने स्नान करने नहीं दिया। जाम्भोजी ने अपने चेले निहालदास को बुलाया और कहा- सरोवर से जल की झारी भर ले आओ। इन्हें स्नान कराओ। जल स्नान से रोग की निवृति होगी। तेजो के कुष्ठ रोगी शरीर पर जल डाला। जैसे ही शरीर पर जल गिरा कुष्ठ रूपी मैल को जल ने धो डाला। तेजाजी ने देखा काया कंचन जैसी होकर दमकने लगी। कवि तेजो ने हाथ जोड़े और स्तुति करने लगे- हे जम्भेश्वर, परम दयालु, कृपालु, आप की जयजयकार हो। आप तो सत्चित आनन्द स्वरूप स्वयं ही अपनी इच्छा से ही मूर्त रूप धारण करके आये हैं। स्वयं संतोषी होते हुए दूसरों का पालन पोषण करने वाले जमात के नियन्ता स्वामी हो। हे देव! हम आपकी क्या महिमा गायें, आप तो सत्य स्वरूप हो। हम सांसारिक लोग तो अनेक पापकर्मों के बन्धन में बंधे हुए कैसे सत्य की स्तुति कर सकते हैं।
आपने मुझे कोढ़ रूपी नरक से बाहर निकाला है, आप कल्पवृक्ष स्वरूप हो। आपके पास जो आ जाता है वह खाली हाथ नहीं जाता है। जो सुरधेनु की सेवा करे तो वह मनवांछित फल प्रदान करने वाली होती है। यदि कोई अपने पास पारस मणि रखे तो उसकी दरिद्रता स्वत:ही मिट जाती है।मैं आपकी शरणागति हो चुका हूं,आप मुझे जो आज्ञा दोगे वही मैं करूंगा।ऐसा कहते हुऐ तेजो गुरु के चरणों में गिर पड़ा।
हे देव !रक्षा करो,श्री देवजी ने तेजे को उठाया और कहा -इस कुष्ट को झडऩे में अन्य किसी का कोई प्रभाव नहीं है।यह तो इस सागर जल में स्नान का ही प्रभाव है।तुमने तन मन धन अर्पण कर क अहंकार को छोड़ कर के श्रद्धा पूर्वक स्नान किया है।तुम्हारी पवित्र श्रद्धा एवं विश्वास ही तुम्हारा रोग दूर करने में सहायक है।
इसी प्रकार से कोल्हजी चारण भी फलोदी के ही रहने वाले थे इनके मस्तिष्क में कीड़ा था।दीमाक में भंयकर पीड़ा चल रही थी।कोल्ह जी ने भंयकर पीड़ा झेली थी।अनेको जगहो पर भटका भी,जहां पर भी जिसने भी पीड़ा हरने का उपाय बतलाया वही पर ही कोल्हजी गये थे किन्तु किसी से भी कुछ कार्य नहीं बना।मगज में कीड़ा था,वह अन्दर ही अन्दर खोखला करता गया।धीरे धीरे भंयकर पीड़ा से कोल्हजी की दोनो आंखे चली गयी।दीखना बन्द हो गया।इस प्रकार तीन वर्षो तक अन्धे हो कर ही समय व्यतीत किया,फिर भी दर्द तो कम नहीं हुआ।
कोल्ह जी का समय अच्छा आया,एक समय जैसलमेर में कवि अलू जी से भेंट हुई तब कोल्ह ने अपना दुखड़ा कह सुनाया।अलू ने बतलाया -हे भाई !आजकल जाम्भोजी महाराज फलोदी के पास ही कपिन सरोवर खुदवा रहे है तुम भी मेरी तरह ही उनकी शरण में चले जाओ।आजकल जैसलमेर का राव जेतसी भी वहीं पर सेवा कार्य कर रहे है वहां जाने से मेरा जलोदर रोग मिट गया था,और रावल जेतसी के भी पेट में फोड़ा हो गया था,उसकी भी निृवति हो गयी है।तुम तो पास में ही रहते हो एक बार अपना चारण कवि पने का अहंकार छोड़कर उनकी शरण में तो जाओ।यदि अकेले नहीं जा सकते तो मेरे साथ चलो।
एक बार सरोवर में स्नान करना,तुम्हारे चक्षु खुल जायेगें।तुम्हारी व्याधि की निृवति हो जायेगी।ऐसा कहते हुऐ अलू जी ने कोल्हजी का हाथ पकड़ कर जाम्बोलाव ले आये।जाम्बेश्वर जी कमलासन पर विराजमान थे,उनकी दिव्य वाणी कोल्ह जी ने सुनी और अपने को धन्य धन्य कहा -
कोल्हजी कहने लगे हे देव !मुझे बचाओ मेरी रक्षा करो त्राहि माम,मैं अपना पन त्याग के आपकी शरण आया हूं ऐसा कहते हुऐ श्री चरण कमलो में दण्डवत प्रणाम किया।सभी को छोड़ कर,हे देव मैंने आपकी ही शरण ली है।आप मेरी दिव्य चक्षु मुझे वापिस लौटा दीजिये।ये मेरी आंखे मस्तिष्क रोग से चले गये है।
जाम्भोजी ने कहा -जाओ,एक बार सरोवर में स्नान करो,तुम्हारी आंखे खुल जायेगी,तुम्हारा सम्पूर्ण दुख मिट जायेगा।कोल्ह वहां से उठ खड़े हुऐ तीर्थ स्थल में जाकर जल में डूबकी लगायी,बाहर निकला तो आंखे खुल गयी थी।पहले से कही अधिक सुन्दर दुनिया दिखने लगी थी।दूसरी डूबकी लगाई फिर आंखे खोली और देखा कंवल सदश नयन खुल गये थे।इस प्रकार से आंखे खुली,करोड़ो जन्मो के पापो का नाश सागर में स्नान से हुआ।
कोल्ह जी ने स्तुति की -
तुमे सुरा सुख दियण,तुम्हे असुरा संघारण।
तुमे जगत पति जगदीश,तुमे सिध साध सुधारण।
तुमे जग जीवा जीव,तुमे केवल अरू कामी।
तुमे त्रिगुण पति आद,तुमे तत अंत्रजामी।
सकल सिरजत सांइया,करतार आप आया कले।
वीनती कोल बल बल विसन,सांरग धर सम्भराथले।
कोल्ह अल्हू की आरती,सुणी जंभ भवनेश।
कुष्ट गयी चक्षु खुले,रहयौ न दुख लवलेश।
जंभसागर में नहात ही कोट रोग विलाय।
नाथो कहै सतगुरु मिले,जीव ब्रह्य मिल जाय।
कान्ह जी चारण राज कवि थे।अन्न धन लक्ष्मी भण्डार भरे थे।किन्तु सभी कुछ होते हुऐ भी पुत्र नहीं था।जिस कारण से सदा ही उदासीन रहते थे। बिना पुत्र के धन दौलत मान सम्मान गृहस्थी को प्रिय नहीं लगते जिस ग्रहस्थ में संतान ही नहीं वह घर नहीं श्मसान ही होता है।
वैद्य हकीम,औषध आदि से इलाज करवाया किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।भोपा भरड़ा कल्पित देवताओ की भलीभांति उपासना की किन्तु निष्फल हुआ। देवी देवता गोगा,भैंरू आदि के थानो पर भी गया,मस्तक झुकाया मन्दिर बनवाने तथा स्वर्ण कलश चढाने की प्रतिज्ञा की किन्तु वहां भी निराशा ही हाथ लगी।अनेक योगी,ब्रह्यचारी,सन्यासी,नाथ आदि के पास भी गया अपनी व्यथा कथा भी कही,सभी ने अपनी मति के अनुसार कुछ कहा परन्तु सन्तान की प्राप्ति नहीं हो सकी।इस प्रकार से आठ वर्ष तक अनेको उपाय किये किन्तु किसी से भी कार्य नहीं हुआ।
ेएक समय कान्होजी अपने जाति भाई अलू जी के पास जाय बैठा।उदासीन होकर सर्वथा निराश था।अलू जी ने कहा -ऐसे जीवन से निराश न होइये,मेरे कहने से एक बार अवश्य ही जाम्भोलाव जाइये और वहां पर सपत्निक स्नान कीजिये तथा वहां के जल का आचमन कीजिये।तुम्हारे कोई पूर्व जन्म के किये हुऐ पाप ही तुम्हारे संतान न होने के कारण है,वह पाप कटने का सरल उपाय जाम्भोलाव तालाब में स्नान करना एवं जल पान करना,मिट्टी निकालना है।
अलू जी की बात पर श्रद्धा विश्वास कर के कान्ह जी चारण सपत्निक अमावस्या के दिन जाम्भा सरोवर गये और तीर्थ में स्नान दान,आचमन किया।वापिस लौट आये नवे महीने कान्ह जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।जो पाप बाधा डाल रहा था वह सिद्ध सरोवर के प्रताप से नष्ट हो गया,इस प्रकार से समय समय पर चार बार जाम्भोलाव पर गये और कान्होजी को चार पुत्रो की प्राप्ति हुई।
कान्ह जी के पुत्र बड़ा हुआ,प्रथम पुत्र के विवाह में श्री जाम्भोजी को निमंत्रण देकर बुलाया था।जाम्भोजी ने निमन्त्रण स्वीकार लिया था।कान्ह जी के पुत्र को आशीर्वाद देने गये थे कान्हजी ने अनेक प्रकार से श्री देवजी का सम्मान किया और कहने लगे -
हे देवजी !आपकी कृपा का ही यह प्रसाद है,मैं तो सर्वथा उदासीन होकर गृहस्थ धर्म से उदासीन ही हो गया था।मेरी आशा निराशा में बदल गयी थी।बिना पुत्र के कुल का विनाश हो जाता है।आपने कृपा करके मेरे को कृलदीपक प्रदान किया।
अब आप शुभ कमल सदृश हाथ मेरे तथा मेरे कुलदीपक उपर रखिये।आपकी अहैतुकी कृपा सदैव बनी रहे।मेरा कुल परिवार आपकी भक्ति करता रहे।यही मैं याचक आपसे याचना कर रहा हूं।
एविधी अस्तुति जंभ की,अल्हू कान्ह जन कीन्ह।
चारण चार जीव बाणवैं,विष्णु धर्म इन लीन्ह।
पुत्र काज जेहि जाचिया,तेही दीन्हा सब त्याग।
अड़सठ धर्म हृदय धरै,नाथा भये बड़ भाग।
नाथोजी उवाच -तीर्थो का प्रभाव प्रत्यक्ष रूपेण देखने को मिलता है जो व्यक्ति श्रद्धा भाव से तीर्थो में स्नान करता है उसको शुभ फल की प्राप्ति अवश्य ही होती है।तथा जो तीर्थ जल ठहरने की भूमि जल ग्रहण करने योग्य बनाने हेतु मिट्टी निकालता है उसके पुण्य का तो कोई आर पार ही नहीं है।हे वील्ह !मैं तुम्हें एक विचित्र कथा सुनाऊंगा जिससे तुम्हारी अज्ञानता नष्ट हो जायेगी तथा जीव अजर अमर है यह ज्ञान होगा।यह शरीर जीर्ण शीर्ण होकर मरता है,तब वह अपने कर्मो के अनुसार ही फल भोगता है।श्री जाम्भोजी के सानिध्य में जैसलमेर के राव जेतसी तालाब खुदवायी का कार्य करवा रहे थे।उस समय श्री जाम्भोजी वहीं जाल वृक्ष के नीचे कमलासन पर विराजमान थे।दिन भर के सेवा कार्य से निवृत होकर सांयकाल में श्री देवजी के पास आकर मन बुद्धि की खुराक ज्ञान की प्राप्ति करते थे।
एक समय हे वील्हा ! मैंने देखा कि जेतसी जाम्भोजी से इस प्रकार से पूछ रहे थे।जेतसी उवाच -हे देव मैं कई दिनो से लगातार अनेक लोगो को देख रहा हूं। सभी की प्रकृति भिन्न भिन्न है फिर भी कुछ हद तक एकता भी है,परन्तु इन्हीं लोगो के बीच एक स्त्री की रीति अलग ही है,अन्य स्त्रियां अपने समूह में रहती है,बाते करती है और तालाब से मिट्टी निकालती है,उनकी मुझे कुछ भी शिकायत नहीं है क्योंकि वे तो सामान्य है।
एक स्त्री उन से अलग रहती है,घूंघट में मुंह छुपाये हुऐ पूरे दिन अबाध गति से तालाब से मिट्टी निकालती है।किसी से बात ही नहीं करती,नहीं किसी को अपना मुंह ही दिखाती।हे देवजी !यह मुंह छिपाना,घूंघट निकालना तो यह बतलाता है कि इसने कोई अपराध किया होगा जो मुंह दिखाने योग्य नहीं है अन्यथा तो मुंह ढकना क्यों?उसी समय अन्य लोगो ने भी कहा -
''एक विसनोवण्य घुंघट काढ माटी काढ,वीसनोई कह -जांभाजी !आकुण जीव थ,पहल जमवार मथुरा नगर मां राणी थी।अण अकरम कुमाणा फेरय लादण हुई, बुढ खीलहरी क घरे कणी साध इह क उपरे पाणी आण्यौ थो।साध दवा दीन्ही,मिनख जमवार आई।अब माटी काढिसी।आवा गुवण्य खंडत होयसी।
जाम्भोजी श्री वायक कह -
शब्द-107
ओ3म् मथुरा नगर की राणी होती, होती पाटमदे राणी।
तीरथ वासी जाती लूटे, अति लूटे खुरसाणी।
मानक मोती हीरा लूट्या, जाय बीलूधा दांणी।
कवले चूकी वचने हारी, जिहिं औगुण ढ़ांची ढ़ोवे पांणी।
विष्णु कूं दोष किसो रे प्राणी, आपे खता कमाणी।
एक बिश्नोई स्त्री घूंघट निकाले हुऐ तालाब से मिट्टी निकाल रही थी।कुछ बिश्नोई सभा में आये और कहने लगे -हे जाम्भोजी।पहले जन्म में यह जीव कौन था?जाम्भोजी ने बतलाया -पहले जन्म में यह मथुरा नगर की राणी थी।इसने पाप कर्म किये थे।जिससे यह बूढे खिलेरी के धर पर भार लादने वाली घोड़ी बन कर आयी।इस पर पानी को ढो कर बुढो पिलाया करते थे।किसी सुपात्र साधु ने इसका लाया हुआ जल पिया था,उसने इसको आशीर्वाद दिया था। जिससे कुछ पाप इसके हल्के हुऐ और यह मानव जीवन में आयी।इस समय मिट्टी निकाल रही है इसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जायेगे,जन्म मरण के चक्कर से छूट जायेगी।
उपस्थित जन समुदाय के प्रमुख राव जेतसी ने पुन: पूछा- हे देव !इसके पूर्व जन्म की कथा विस्तार से बतलाइये,आप तो अन्तर्यामि परमेश्वर सर्वज्ञ है। हम तो जीव होने से अल्पज्ञ है। श्री जाम्भेश्वर जी ने शब्द द्वारा विस्तार से बतलाया -यह मथुरा नगर की शिरोमणी रानी थी।जब इसका पति स्वर्ग वास हो गया तो यही पूर्ण पटरानी होने से राजा बन गयी।इसी के हुक्म से राज काज चलता था।
एक समय गुजराती तीर्थ यात्री गंगा यमुना में स्नान तीर्थ करने के लिये मथुरा में आये थे।तथा अन्य तीर्थ यात्री खुरासाण से भी यही एकत्रित हो गये थे।मथुरा की आसा नाम की पटराणी ने अपने सेवको को आदेश दिया था कि जो कोई भी मथुरा में प्रवेश करे उससे कर अवश्य ही लेना है।ये तीर्थ यात्री यमुना के किनारे आसन लगाये हुऐ थे।डाणी डाण कर लेने वाले राज पुरूषो ने आकर उनसे भी कर मांगा और कहा महारानी के आदेशानुसार पहले कर दीजिये,पीछे यमुना में स्नान करे,वे तीर्थवासी लोग कहने लगे हम व्यापारी नहीं है।जो आप हम से कर मांग रहे हो हम तो तीर्थयात्री है।तीर्थ यात्रियो से डाण नहीं लिया जाता और नहीं हम देगें।
उन राज पुरूषो ने रानी के सामने जाकर निवेदन किया कि ये लोग तो व्यापारी नहीं है तीर्थयात्री है।इनके साथ कैसा व्यवहार किया जावे?
रानी ने कहा -क्या हुआ जो तीर्थ यात्री है तो इनके पास धन है या नहीं?
यदि धन है तो किसी भी प्रकार से प्राप्त करो।यहां तो सभी व्यापारी ही ऐसा ही बहाना बाजी करते है। हे सेवको ! मुझे धन चाहिये हीरा मोती माणिक आदि चाहिये,जाओ लूट ले आओ।
रानी के कहने अनुसार ही उन राज सेवको ने उन तीर्थ यात्रियों से माणिक,मोती,हीरा,स्वर्ण मुद्रा आदि लूट ली।रानी को लाकर समर्पित कर दिया।रानी ने उस लूट के धन को अपने काम लिया।
हे शिष्यो ! वह रानी थी,उसने प्रजा पालन का कार्य धर्म नीति से करने का वचन जनता को तथा भगवान को दिया था।भगवान को साक्षी मानकर शपथ ली थी किन्तु उन वचनो को तो लोभ के वशीभूत होकर तोड़ दिया था।उस जन्म में तो पाप के धन को खाकर,दूसरे के हक को छीन कर,जीवन सुख से बिताया,क्योंकि जीव कर्म करने में स्वंतत्र है।इस जीवन में कुछ भी करने में समर्थ है किन्तु ''मूवा परहथ सारूं" मरने के बाद दूसरे के हाथ चढ जाता है,उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
इसी पप से दूसरे जन्म में वह बूढ़े खिलेरी के घर पर भार लादने वाली घोड़ी बनी। उसने पीठ पर पानी ढ़ोकर के पानी पिलाया। कुछ पुण्य इसको भी मिला, और संत की कृपा से इस जन्म में यह स्त्री बन करके आ गयी है। जो जीव जैसा कर्म करता है, उसका भोक्ता भी वही होता है किन्तु व्यक्ति को जब जब भी पाप कर्मों का फल दु:ख आता है तो विष्णु भगवान को दोष देता है। हे प्राणी! विष्णु को दोष क्यों देता है?
यह सुख दुख तुम्हारे कर्मों का ही फल है।
(जाम्भा पुराण से ली गयी जानकारी के अनुसार)