बाललीला
गुरु जांभोजी ने जन्म के बाद दी जाने वाली घूंटी नहीं ली थी। जन्मघूंटी देने वाली स्त्री (महरी) का हाथ उनके मुंह पर न टिककर बार बार नाक या गाल पर टिक जाता था। उनको यदि पीढ़े पर लेटाया जाता तो वे थोड़ी देर बाद घूमकर दूसरी ओर सिर किये लेटे मिलते। एक बार सेज से गायब हो गये तथा थोड़ी बार लोहट द्वारा ढ़ूंढऩे पर वहीं मिल गये। इसी तरह एक बार पालने में लेटे हुए इतने भारी हो गये कि उनकी भुआ तांतू आदि उनको उठा भी न सके। वे कुछ भी खाते पीते नहीं थे। न ही पलक झपकाते थे, न धरती पर पीठ लगाते थे और न ही नींद लेते थे। इस प्रकार जाम्भोजी ने 7 वर्ष बाललीला में बिताये। इस दौरान वे बहुत कम बोलते थे। जब कभी बोलते थे, केवल ज्ञान की बात करते थे, व्यर्थ की बात नहीं करते थे। इस कारण आम लोग जाम्भोजी को भोला (गहला) बालक समझते थे और उनके पिता लोहट व माता हंसा को भी यही भ्रम था। उन्होनें इसी भ्रम के कारण उनका उपचार कराने हेतु कई प्रकार के प्रयास किये जिनमें, टोने-टोटके भी शामिल थे, लेकिन सब निष्फल रहे। अन्त में उन्होनें कुछ लोगों केकहने पर एक ब्राह्मण को बुलाया, जो देवी का भोपा था। उसने 64 दीपक जलाकर मंत्रों द्वारा उपचार शुरू करना चाहा, लेकिन कोई भी दीपक नहीं जला। अंत में जब वह इस प्रयास से निराश हो गया तो जांभोजी महाराज ने एक कच्चा घड़ा लेकर उसे सूत के कच्चे धागे से बांधकर कुएं से जल निकाला और सब दीपकों में थोड़ा-थोड़ा जल डाला, जिसके डालते ही सभी दीपक जल उठे। इस चमत्कार को देखकर वहां उपस्थित जनसमूह अचम्भित हुआ। यह घटना विक्रम संवत 1515 भादो बदी अष्टमी की है।
जांभोजी ने उपस्थित जनसमूह को तथा उस पुरोहित ब्राह्मण को भी सम्बोधित करते हुए निम्नलिखित प्रथम शब्द का उच्चारण किया-
"गुरू चीन्हूं गुरू चीन्ह पुरोहित, गुरू मुखिधर्म वखांणी। जो गुर होयबा सहजे सीले नादे विंदे तिंह गुर का आलिंगार पिछांणी। छह दरसंण जिंहके रोपंणि थांपणि संसार वरतंणि निज करि थरप्या सो गुरू परतकि जांणी। जिंहकेखस्तरि गोठि निरोतिर वाचा रहिया रूद्र समाणी। गुरू आप संतोषी अबंरा पोषी, तंत महारस वांणी। के के अळिया वांसण होत होतासंण तांहां मां खीरि दुहीजै। रसूं न गोरसूं घीय न लियौ ताहां दूध न पाणी। गुर ध्याय रे ग्यांनी तोडि़क मोहा अति खुरसांणी छीजंत लोहा।पांणी छलि तेरी खाल वखाला,
सतगुर तोड़े मन का साला। सतगुरू होई सहज पिछांणी, किसन चिरत विणि काचै करवे रह्यो न रहिसी पाणीं ।"